जज़्बात एक्सप्रेस
जज़्बात एक्सप्रेस
कभी हम भी दीवाने थे
ये फरवरी का महीना
बंसती ब्यार
फूलों का बेशुमार लदना
पेड़ पौधों का
हया से शरमा कर झुकना ...
निगाहें टकराना
आंखें चार होना
और
जबरन
बे जरूरत
दिल में उतरकर
कब्ज़ा कर लेना ....
यह सब
हमारे समय से ही
चलता आ रहा है
मगर
हम
संस्कारों और सामाजिक मर्यादाओं में बंधे
इज़हार नहीं कर पाते थे
और
अपनी
खामोश मोहब्बत को
कभी कोई नाम
नहीं दे पाते थे
ऐसा नहीं कि
हमारी मोहब्बतें
सच्ची नहीं होती थी
वो मोहब्बतें तो
सबसे अच्छी होती थी
जो कभी
जाहिर ही न हुआ हो ....
दोबारा कभी
मिलना हुआ तो
हम .....
अपनी-अपनी
दास्तां सुनाएंगे
"कभी हम भी दीवाने थे आपके"

