जिन्दगी की जंग
जिन्दगी की जंग
रोज लडती है वो
जिन्दगी की जंग
मासूम तीन बच्चे
और बूढे लाचार माँ बाप
तन पर चिथडे से कपड़े
बिना चप्पलों वाले पैरो को आजमाती
उस ऊँची इमारत के बाहर
बासँ वाली सीढ़ियों से चढती
सिर पर एक पतीला -सा
भरा जिसमें कोई पदार्थ
खिड़की से देखती रहती मैं हर रोज
डगमगाते उसके कदम सहम जाता मेरा मन
खाली उस पतीले को
लेकर उतरती उस बांस के
आड़े तिरछे बंधन से
मैं देखती नीचे
डरी सहमी सी उस मासूम बच्ची को
शायद उसकी बेटी थी वो
सीख रही थी माँ के ये गुर
जीवन से लडने के
या मौत को करीब से जानने के !
हर रोज जीती मर रही है वो
बच्चों के पेट की भूख मिटाने
बूढे माँ बाप की दवाई के पैसे जुटाने
और फिर कुछ बच जाए तो
अपने पेट में डालने
क्योंकि अगले दिन फिर से लड़नी है
उसे 'इन्दु' जिन्दगी की जंग।