जिंदगी चुपचाप सी हो
जिंदगी चुपचाप सी हो
जिंदगी चुपचाप-सी हो ऐसे, सी लिए हो होंठ जैसे।
आज काँधे पे लाद अपना घर एक और आंगन की तलाश में फिर चल दिये हैं।।
जैसे चौड़ी होती सड़कों और अंधाधुंध उगती इमारतों के नीचे,
जब दब जाती हो हमारी छत और बिल जाता तुलसी का बिरवा हो जैसे
तब जिंदगी के उन पहलुओं में कुछ समझ आता ही नही और इन सब से जुड़ कर कोई नाता ही नही।।