ये है खुशियों का राज़
ये है खुशियों का राज़
मेरी कविता मेरी खुद की खुद से कल्पना है, जिसमें मैं शाम को ठहरने को बोलती हूँ, और उसी समय के साथ रहना चाहती हूं।
पर बाद जाकर पता लगता है, की नहीं!
जैसे शाम है वैसे ही सुबह और रात की भी अपनी खूबसूरती है, और तब जाकर मैं ये समझ पाती की हाँ!
पहर चाहे कोई भी उसकी खूबसूरती देखते ही बनती है।
शुक्रिया दोस्तों।
सुनो! एक कला है इनमें
जो हाथों से पन्नों में स्याही बिखेरती है
जो कभी सुंदर चित्रों में रंग समेटती है
यही किसी स्याही के कुछ रंगों में से,
अपने रंगों की सुगंध को पहचान के
उनमें बिना रंग के भी अपनी कला से सिर्फ
एक रंगों के रंग में सबकुछ निखरती है।
फिर बस
यूं ही देखते देखते आँखों के कजरारे नयन समेटती है
उनमें यूं डूब जाए बस ऐसे की मेरे जेहन से निकले चयन बिखेरती है
अब सहारा तो बस उस ढलती शाम का हो जाता,
जो ढल तो जाए मगर चाँद को बिन बताए
यूं चुप चुप भी रहे मगर चांदनी से मुंह छुपाये !
कहती कि फिर आऊंगी, इंतज़ार करना ,
कहती कि ढल जाऊंगी न बे - वक़्त रहना,
फिर कहीं नीले आसमान में थम सी जाती,
कहीं कोई कोकिला भी कुहू कुहू करने लगती है
कहीं मोर नाचने लगते, तो कहीं पक्षी बसेरा ढूंढने लगते हैं
तभी मेरा मन मचल उठता है, कि फिर रात्रि की ओर दिशा पसरती है
फिर कहीं धीरे धीरे रात थम जाती,
इन तारों की बस्ती में सौंदर्य पूर्ण चाँद को भी लुभावने अंदाज़ से देखती है
और तब मैं इन दृश्यों में लीन हो, रात उस चांदनी की गोद में बैठकर
मन्द मन्द मुस्काये उन लम्हों को समेटती हूँ।
फिर तभी अचानक एहसास में आता की
ये रात भी तो गहरी है जैसे शाम अपने समय में ठहरती है
ये दिन भी तो रंगीन है जिस सुबह अपने सूरज की किरणों में नहाए कुछ कहती है
इसलिए न शिकायत करूंगी न रूठूँगी खुद से, बस जिस समय में भी हूँ,
उसके आदि से अंत की दूरी को विस्थापित कर उसमें ही मग्न हो जाऊंगी
उसमें ही मग्न हो जाऊंगी।