जीवन एक दुविधा
जीवन एक दुविधा
जीवन इक दुविधा भारी है,
हर कदम पे जहाँ इक लाचारी है,
दिल के तार या कायदों की दीवार,
कैसे चुने किसी एक को ,आखिर क्यों ये बेज़ारी है।
बाबुल की गलियां छोड़ी, माँ का आँचल छोड़ दिया,
बेगानो का हाथ जो थामा, घर अपना ही छोड़ दिया,
घर छोड़ा, गली छोड़ी, पर तोड़ दिए हैं बंधन सारे,,,,
ऐसा क्योंकर सोच लिया।
नन्ही बिटिया जब डगमग डगमग चलती थी,
हर खरोंच पे बाबुल की आह निकलती थी।
गिरते उठते सम्भलते बिटिया चलना सीख गई,
पर बूढ़े माँ बाप की डगमग चाल देखके
क्यों ये अंखिया भीग गयी।
तपती धूप में छाया देता माँ का आँचल शीतल था,
फिर बूढ़ी माँ को संबल देना क्यों दुनिया के लिए दुश्वारी है।
दिल के तार या कायदों की दीवार,
कैसे चुने किसी एक को आखिर क्यों ये बेज़ारी है।
सच कहते हैं दुनिया वाले बेटी तो पराई है,
जिस घर मे जनम लिया, वहाँ उसकी नियति विदाई है
जिस घर मे रोपी जाती उस घर मे भी वो पराई है।
बेटा करे तो धर्म और बेटी करे
माँ बाप की सेवा तो माँ बाप के लिए शर्म।
ये सृष्टि का नियम तो न था
ये तो इस समाज की लाचारी हो गयी।
दिल के तार या कायदों की दीवार,
कैसे चुने किसी एक को आखिर क्यो ये बेज़ारी है।
बँट जाता है दिल बेटी का दुनियादारी की बातों में,
कर्तव्य सिर्फ ससुराल के नहीं, सुकून आएगा जब,
बेटी भी साम्ब सके बूढ़े माँ बाप को अपनी बाहों में।