कर्ज- एक मर्ज
कर्ज- एक मर्ज
कर्ज का मर्ज होता है कैसा
समझ कभी ना पाया था
जब तक कर्ज में नहीं था डूबा
ऋणकर्ता का मजाक बनाया था
समय बदलते देर ना लगती
अपनी मूर्खता की वजह से मैं भी
कर्ज की दुनिया में कदम बढ़ा
अपना बाल-बाल बंधवाया था।।
सब कहते थे कर्ज ना लेना
गरीबी में तुम रह लेना
कर्ज का मुंह छोटा ओर पेट बड़ा
आसानी से ये नहीं चुकता
भाई ने मना किया और
बहन का प्रस्ताव भी ठुकराया था
ब्याज का अब पहाड़ देख
पल-पल जीवन की उम्मीद को मैं खोया था।।
एक का भुगतान कर चुका
दूजा घर पर मैं पाता
ब्याज दूँ या मूल चुकाऊँ
कुछ नहीं मैं सोच पाया था
दिन पर दिन कर्ज बढ़ता जाता
सोच-सोच के अपनी मूर्खता पर
आत्मग्लानि से इतना भर जाता
कुछ नहीं मैं सोच पाया था।।
पत्नी के आभूषण गिरवी रख दिये
एल. आई. सी पर लोन लिया
क्या करूँ कैसे करूँ
छुटकारा कर्ज से कैसे पाऊँ
कुछ भी ना अब पास रहा
बच्चे को कुछ दिला ना पाऊँ
पैसे पैसे को मोहताज हुआ
अपनी मूर्खता पर आंसू बहाया था।।
दिल की धड़कने बढ्ने लग गई
ना खुद पर भी विश्वास रहा
पुजा भक्ति में डूब चुका मैं
जैसे आशा की किरण को ढूंढ रहा
अपनों का अब साथ भी छूटा
ना ही अब अब कोई दोस्त रहा
कर्ज ना लेना जीवन में
फूल कहानी में सुना रहा।।
