एक भिखारिन
एक भिखारिन
जाने कैसी विडम्बना जीवन की
जो इस दशा आ गिरी
ना कोई हमदर्द अपना
ना ही मेरा साथी कोई, ना किसी ने वेदना सुनी।।
आते-जाते सब देखते
मिलता ना अब तक बिरला कोई
मेरी सुने कभी अपनी सुनाये
आत्मीयता से मिले कभी।।
ना क्षुधा मुझे किसी के धन की
ना लोभ भी मन में कोई
कहीं पड़ा मिल जाता पाथेय
उससे अपना पेट भरी।।
आमूल तक मै टूट चुकी
महि मुझको कोष रही
व्रजपात सा होता हृदय
भिखारिन की जो आवाज सुनी।।
अब तो आदत सी हो गयी
निशि-दिवस का ध्यान नहीं
नवल सपनों के अंकुरो का भी
मुझको अब ना भान कोई।।
