जीने दो मुझको भी
जीने दो मुझको भी
क्या हुआ जो आठ बजे उठती हूँ
क्या हुआ जो देर रात मोबाइल पर चैटिंग करती हूँ
मैने तो कभी कहा नहीं
तुम जल्दी क्न्यो सो जाते हो
मैने तो कभी पूछा नहीं
तुम मोबाइल पर घंटों क्या करते रहते हो
अर्धांगनी हूँ कोई ख़रीदी हुई जागीर नहीं
मेरा अपना भी अस्तित्व है
मेरे अपने भी शौक हैं
कौनसी जिम्मेदारी है जो
मैने पूरी करी नहीं
कौनसे ऐसे बंधन है जो मैने माने नहीं
कहते हो तुम हमेशा कि
तुमने मुझे कभी रोका टोका नहीं
तो ये भी बताओ मैने कब निकाले मीन -मेख
कब तुम्हारी बातों को माना नहीं
अब उम्र के इस पड़ाव पर
जब हल्की सफेदी है कनपटी पर
आँखों पर ऐनक चढ़ी है
फिर भी मन मर्जी का न करुँ
तो ये भी अब गवारा नहीं
खुद के लिये न जियू ये तो
संभव नहीं
अब तो जीने दो मुझको भी
अपने हिसाब से।