झूठा सच
झूठा सच
बदन से टकराती हुई ये हवा और धूप की तपिश
मेरे जहनों गुमाँ के चाक पर
जिस ख्याल को बनाकर
दिलों के तारो में सोए पड़े
जिन नगमें को जगाना चाहती है
जैसे भरे ज़ख्म को कुरेदना चाहती है
सीधी राहों पे चलती हुई ज़िंदगी
फिर डगर भटकाना चाहती है
मेरे ख़्यालों और गुमानों में तुम हो मगर
हक़ीक़त में आँखों के लिए कुछ भी नहीं है
नहीं है अब, अब है तो ये ख़्याले मुसव्वरी है
तस्वीरों में रुके हुए कुछ लम्हे है
कुछ मुकद्दस किताबों के सफ़ो में
सच्चाई की डगर पे चलते
कुछ सन्तों के काफिले है
जो सच्चे है
कुछ शहीद है जिनके लहू के छीटों से
महक आज भी फूटती है
जिनके नामों को शहादत बोसे आज भी देती है
वो सच्चे है
सावन में बरसती बरसात की झड़ी सच्ची है
उस किसान की मुस्कान सच्ची है
जिसकी फ़सल लहलहाकर उसकी हथेलियों को चूमती है
बसंत में डाली पें कोई गोरी झूला झूलती है
वो सच्ची है
एक मल्लाह की कश्ती किनारे को चूमती है
ये सच्चे है
सच्चे है मेरे गाँव
सच्चे है मेरे तीज त्यौहार
सच्ची है ये जमीन
सच्चा है ये आसमान
मगर जो सच्चे नहीं थे
वो तेरे वादे थे
जो मेरी हथेलियों पे तूने किये और फिर
मिटा दिए
जैसे के वो राएगाँ थे
और में आज तलक इसी कशमकश में हूँ
तेरा प्यार सच्चा था
या झूठा था
वो सच्चा झूठ था या झूठा सच था।