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Shahwaiz Khan

Abstract Tragedy Others

4.5  

Shahwaiz Khan

Abstract Tragedy Others

खिलौना

खिलौना

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361


मैं ज़िंदगी के आईने से आँखें चुराते हुए

दिल की तंग गलियों में क़ैद

मायूस ख्वाहिशों के सवालों से परेशाँ हूँ

मैं परेशाँ हूँ अपने ही लहू की आग से

जो तिल तिल मुझे जला रही है

सता रही है

परेशाँ हूँ उन फूलों कलियों को जिन्हें मैंने चूमा था

जिसके कांटे अब मेरी रूह में उतर गये है

कुदरत की रहमतों से बेनियाज़ 

एक पत्थर के शाहकार के सिवा अब में कुछ नहीं हूँ

जो सवाल मेरे हमराह बिखरे पड़े हैं

जिनके जवाब तुम्हें सकते में डाल सकते हैं

मत पूछो

ना पूछो मुझसे में क्या हूँ

में वो राह हूँ

जिस पे मुसाफ़िर थक हार के लौट सकता है

मैं वो बाग़ हूँ जिससे बहारों को कोई रंजिश है

एक दरिया हूँ जो बस एक भंवर है

एक मुद्दत से बंद वीरान महल हूँ

जिसमें मेरी रूह कबसे चीख रही है

मैं एक खिलौना था खिलौना ही रह गया

मुझसे खेलने वाले बचपन अब जवाँ हो गये

एक तस्वीर था

जो मुकम्मल ना हो सकी

एक ख्वाब हूँ कोई खौफनाक सा

जिसे देखने से आँखें नीली पड़ जाए

और सबसे छुपा हुआ राज हूँ

जिस्म पे आईना सिफ़्त चमड़ी को लपेटे

मुझे देखने वाले को मैं नजर नहीं आ सकता

जिस तरहा जो देखता है

मैं वैसा नज़र आता हूं

मैं दुनिया के रंगो में रंगा नज़र आता हूं


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