जब वक़्त मिले...!
जब वक़्त मिले...!
उसने कहा था,
जब भी वक़्त मिले मिल लेना ख़ुद से
जानो तो सही कैसी हो गई हो
कभी आईने के समीप जाना और
बातें करना ख़ुद से फिर मुझे बताना अपने बारे में!
उसको क्या बताऊँ..
कभी ख़ुद को देखा ही नहीं
मिलने किससे जाऊँ..?
जो दिखी वो मैं थी नहीं
वो थी एक ऐसी औरत
जो किये जा रही थी कदम दर कदम समझौता
जिये जा रही थी झूठ के बुनियाद पर बने रिश्ते
वो जो थी, मैं थी क्या..?
नहीं मैं कहीं थी ही नहीं
शायद मर चूकि थी दम घुटने से और
उसमें कोई और आकर बस गया था।
किसके लिए वक़्त निकलती और किससे मिलती?
अब तो केवल शेष था एक झूठ
जिसमें कोई भावना नहीं
जिसका कोई मान नहीं /
कोई अभिमान नहीं/
जिसने चाहा / जैसे चाहा इस्तेमाल किया
और फिर तोड़- मरोड़ कर जलील कर
किसी कोने में फेक दिया
यूज एंड थ्रो किसी वस्तु सरीखे..!
अब वक़्त नहीं जिससे मिलने जाऊँ
कभी देखा नहीं ख़ुद को किससे मिलने जाऊँ..??