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Archana kochar Sugandha

Action

4  

Archana kochar Sugandha

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जब मेरी आत्मा रोई थी

जब मेरी आत्मा रोई थी

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जागते में तुम्हारे सपनों में खोई थी

जब मेरी आत्मा रोई थी

मैं मौन और निःशब्द थी

शायद, तुम्हारे वियोग में, शोक संतृप्त थी।

मैं फैलाती थी तुम्हारे आगे बाहें

पर, तुम्हारी तो अपनी ही थीं राहें।

मैं चाहती थी तुम्हारी बाँहों का सहारा

पर, तुम्हारी तो अपनी ही थी मंजिल और किनारा।

मैं तुम्हारी बेरुखी का शिकार थी

शायद बेरुखी, तुम्हारे लिए सोलह श्रृंगार थी।

मैं बेबस और लाचार थी

शायद, तुम्हारे लिए पाश का हार थी।

मैं मानती थी तुम्हें मन्दिर की मूरत

तुम्हें गवारा नहीं था देखनी मेरी सूरत।

मैं मानती थी तुम्हें आईना

पर, तुम करते थे मेरी अवमानना।

मैं मानती थी तुम्हें भगवान

शायद, तुम्हें मंजूर नहीं था मुझसे यह सम्मान।

मैं छोड़ना नहीं चाहती थी तुम्हारा हाथ

पर, तुम्हें गवारा नहीं था मेरा साथ।

तुम मुझे मारते थे ठोकर

फिर भी, मुझ से छूटती नहीं थी तुम्हारी चौखट।

 

यह कैसी प्रेम की बानगी थी

रूह से दीवानगी थी।

यह कैसा था प्रेम रोग

सहा नहीं जा रहा था तुम्हारा वियोग।

जागते में तुम्हारे सपनों में खोई थी

जब मेरी आत्मा रोई थी।।

 


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