जैसे थे
जैसे थे
हंसी की मिठास पर हर कोई मरता है अश्कों की खारी नमी कहाँ भाती है।
दर्द की ख़लिश पर मरहम की परत लगती है इंसान क्यूँ नमक की थैली लिए फिरता है।
दूसरे पर घट रही तमाशा लगती है खुद पर पहाड़ टूटे तो आपबीती लगती है।
मुनाफ़े पर ही इंसान की आँखें जमी जहाँ साँस-साँस को तरसे दिल की ज़मीं है।
कहाँ किसी और की पीड़ सहलाने का वक्त यहाँ हर ज़िंदगी चुनौतियों से लड़ रही है।
था एक ज़माना परायों से भी प्रीत का आज तो अपनों से दूरी पर ज़िंदगी थमी है।
वक की साज़िशों से बेखबर इंसान की नीति ही इंसान को मौत के दल-दल में ले डूबी है।
हर विपदा पर वादा करते है अब ना कोई गलती करेंगे चंद दिनों में फिर क्यूँ हम जैसे थे बनकर बैठ जाते है।
ज़िंदगी की बावड़ी में खरा सोना जन्म लेता है पर मृत्यु तक पहुँचते मानव लोहा बन जाता है।
