जाना-पहचाना
जाना-पहचाना
चल पड़ा हूँ लेकर मैं
ख़्वाहिशों का बड़ा डगर,
साथ में कही भी नहीं मिल रहा
प्यारा कोई हमसफ़र।
मिला ना कोई कारवाँ
ना मिला कोई राहबर,
सच तभी मालुम हुआ की
ये तो था एक अनजाना सफर।
ना दूर तक कोई राह हैं
ना है मंजिल की कोई खबर,
बस निकल पड़ा हूँ ढूंढने
अपना खुद का राहबर।
यह सोच है या सच है की
चलता हूँ मैं जिस राह पर,
वहाँ पे है मेरी ज़िन्दगी का
बहुत ही बढ़िया सफर।
कुछ लगा जाना-पहचाना सा
और बहुत ही लगा अनजाना सा,
वही पर ही हम चल पड़े
था जो एक अनजाना सफर।
