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Kavita Sharrma

Abstract

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Kavita Sharrma

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जाल

जाल

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मानव जीवन भी इक जाल सा है

जितना निकलने की कोशिश करो

उतना ही उलझता जाता है

तृष्णाओं के पीछे-पीछे 

अंतहीन भागता ही जाता है

कबर में लटके हैं पैर पर इच्छाएं

तो अभी जवान है

हाय रे मनुष्य तेरी ऐसी जिंदगी बड़ी नाकाम है.


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