इश्क
इश्क


आज एक बात कहनी थी मुझे
तुमसे कोई बहुत ज़रुरी
और शून्य हो गया दिमाग का
कारखाना तुम्हारी झलक
देखते ही
मूड़ में थी आज शांत झरोखे में
कुर्सी पर बैठे सुरमई शाम के
साये में तुम्हें सोचते हुए गर्म
कॉफ़ी की लज्जत लेते घूंट घूंट
अहसासों में भरना था और
सोच में उलझते कॉफ़ी का बर्फ़
हो जाना
बाजार का रुख़ किया कुछ लेना
था शायद भूल जाते हैं ना कुछ-कुछ
कभी-कभी क्या लेना था
जाना था जरूरी काम से कहीं, और
दो कदम की दूरी पर बस का छूट
जाना कचोटता है जैसे ये सारे हादसे
ठीक वैसे लब पर इश्क का इ
तुम्हारे दीदार का जश्न मनाते
ठहर गया अगले डेढ़ शब्द को
हलक में ही छुपाते
आँखें पढ़ लो ना पूरा समझ जाओगे "इश्क"