इंतज़ार
इंतज़ार


सब कुछ कितना मुकम्मिल था
अंधेरे की आहट, एकांत, ऊंचे दरख्तों का मौन
झिंगुरों की शुरुआती मरमराहट
दो फूलों से सजा गुलदान
आस-पास रखी मिट्टी की एक चिडिया
एक खरगोश भी
और खिड़की पर रखा कैक्टस का
टूटा हुआ सा एक गमला,
कमरे में मद्धिम पीली रौशनी
बिखेरता इकलौता पीला बल्ब
जर्जर सी एक पुरानी मेज -कुर्सी
नीली दवात -कलम व हैंडमेड पन्ने
जहां-तहां चूना उधडी़ खुरची दीवारें,
हल्के पीले पर्दे और उसमें
छुपाई गई गीली हथेलियों के लम्स,
हल
्के ही पीले रंग के शरारे में
लिपटी वो एक साये सी घबराई
कभी चहलकदमी करती कि अचानक थम जाती
कभी बैठती कभी झटके से उठ जाती
कभी यूं ही कुछ बुदबुदाती
कभी आवाज हलक में अटक जाती
कभी पेशानी से चुनती पसीना और सीने में भींच लेती,
तभी खबर आई आना मुल्तवी हो गया
ओहहह... कितनी राहत है इन शब्दों में
एक ठंडी उसांस और ढीली होती हुयी देह के साथ
ये खयाल चोट सा उभरा नजरों में
फफककर बह निकला
इश्क़ में इंतजार नेमत है
कि ये जितना विस्तृत हो उतना बेहतर।