इंसाफ
इंसाफ
फ़ाज़िल मुंसिफ तो सिर्फ क़ानून जानता है
क़ातिल को मक़तूल का खून पहचानता है
जिंदा लाशें जो हुई हैं अब सिरे से नाउम्मीद
वैसे इंसाफ तो वो मरने वाला भी मांगता है
गवाह-ओ-सबूत ही तो नही रहे हक़ में बस
दरअसल की हक़ीक़त तो जमाना जानता है
क़ातिल का गज़ब असर-ओ-रसूख है साहब
शायद खु़दा भी उसको ही बेगुनाह मानता है
झोंक सकते हो जितनी धूल तुम झोंक दो
आंखोँ पे ये पट्टी तभी तो क़ानून बाँधता है
तफ्शीश मुक़म्मल ना हुई थी वारदात में
अपना भी गिरेबान कहां क़ानून झांकता है
'दक्ष' बात है ये बस बयां पर हुई जिरह की
चश्मदीद रूह भी है हाज़िर कौन जानता है।
