STORYMIRROR

Ajay Singla

Classics

4  

Ajay Singla

Classics

रामायण ३१;शबरी की भक्ति

रामायण ३१;शबरी की भक्ति

1 min
23.2K

शबरी आश्रम में राम पधारे

चरणों से वो लिपट गयी थी

प्रेम विह्वल रोये जाती वो

उसे कोई सुध बुध नहीं थी।


राम लक्ष्मण के पांव थे धोये

आसन दिया था दोनों जन को

चख चख मीठे फल दे राम को

भा गया प्रेम राम के मन को।


हाथ जोड़ खड़ी हो गयीं

बोलीं मैं अधम, एक नारी

न जानूं मैं धर्म की बातें

कैसे करूँ स्तुति तुम्हारी।


राम कहें जो भजे प्रेम से

भक्ति मेरी मिलती है उसको

सुनाऊँ मैं नवधा भक्ति अब

मन में धारण करलो इसको।


पहली भक्ति, संतों का सत्संग

दूसरी, प्रेम मेरी कथा का 

तीसरी, गुरु चरणों की सेवा

चौथी, गुणगान मेरे गुणों का।


पांचवी दृढ़ निश्चय मेरे में

छठी इन्द्रियां वश में रखें

सातवीं सब में देखें राम ही

आठवीं पराया दोष न देखें।


नौवीं सरल, कपट रहित जीवन

ना कोई हर्ष, विषाद कोई ना

सभी भक्ति अपने में पूर्ण

छोटी और बड़ी कोई ना।


कोई एक भी भक्ति हो तो

किसी जीव और जड़ चेतन में

अत्यंत प्रिय मुझे वो जीव है

वो बसता है मेरे मन में।


तुम में ये सारी की सारी

योगी भी इसको न पाएं

पूछा फिर सीता के बारे में

कृपा करके कुछ आप बताएं।


शबरी बोली पम्पा सरोवर जाओ

सुग्रीव बनें तुम्हारे मित्र वहां

उनके संग कपि की सेना

वो सब ढूंढें सीताजी हो जहाँ।


वैसे तो सब जानें आप हैं

फिर भी पूछें तो बतलाया

प्रभु को ह्रदय में धारण कर

योगाग्नि से शरीर जलाया।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Classics