इंसानी भेड़िए
इंसानी भेड़िए


सावधान रहो! इंसानी शक्ल में, यहां भेड़िए घूमते हैं,
खाल को उधेड़ देते हैं, जब वो प्यार से भी चूमते हैं।
नहीं देखते कुछ करने को, वो दिन रात का अंतर,
पलक झपकते जब चाहे, रूप बदल होते छूमंतर।
अपने आने की खबर, अब घुरघराकर नहीं बताते हैैं,
बस चुपके से आते हैं, और शिकार चट कर जाते हैं।
पहले रखवालों से डर, भेड़ों के झुंड में मुंह छुपाते थे,
या ढूंढ शिकार झुंड में, कोने में उसका मुंड चबाते थे।
हासिल हैं ताकतें ऐसी, अब पैने दांत नज़र ना जाते हैं,
दबोचना चाहें कुछ, पंजे हाथों में माकूल उभर आते हैं।
चालाक हो गए हैं, कुछ को मारते हैं कुछ को खाते हैं,
बढा़ने को फौज ये, कुछ को अब जिंदा छोड़ जाते हैं।
छोड़ते हैं जिनको जिंदा, वो फिर इन जैसे बन जाते हैं,
छोड़ इंसानियत अपनी, फिर इनके रंग में रंग जाते हैं।
गुथ्थमगुथ्था इंसान भेड़िया, कब कैसे बदल जाते हैं,
शक्लें हैं इंसानों सी, पर करते भेड़ियों वाली बातें हैं।
कहीं मैं तो नहीं उनसा, क्यों ये मुझे इंसां नजर आते हैं,
सुन रखा है बिरादरी वाले, अपनों को पहचान जाते हैं।
ये माजरा क्या? कोई बताओ, ये पहेली कोई बुझाओ,
हम उनके बीच या वो, निकलने की मुझे राह सुझाओ।
बच के रहना है तो सोचो, खुद को कितना जानते हैं,
वो छुप कर बैठा हममें, देखते कब उसे पहचानते हैं।
बचना है तो बोलना होगा, हम उसे ना अपना मानते हैं,
वे तो भेड़िए हैं, एक दूजे को बस आवाज से जानते हैं।