इंकलाब के दीवाने
इंकलाब के दीवाने
लिखूं आज कविता उस वीर की
जो आजादी का दीवाना था
पहन बसंती चोला
फांसी के फंदे पर वह झूला था
इंकलाब का नारा देकर
युवाओं में जोश जगाया था
बदला लेने लाला जी का
स्कॉट पर हमला बोला था
सुखदेव राजगुरु के साथ
गोरों को खून के आंसू रुलाया था
आजादी के इन दीवानों ने
सांडर्स हत्या कांड रचाया था
जाकर कैदखाने में
अनशन पर वह बैठा था
खूब झुकाया अंग्रेजों ने
पर वो कहां झुकने वाला था
मरने का कोई गम नहीं उसे
साथ कफन लेकर वह घुमा करता था
जब भी वह कोर्ट में आता
इंकलाब का नारा लगाया करता था
तय तारीख को जब
फांसी का समय आया था
अंतिम इच्छा मुक्कमल हुई
तीनों ने अपने आप को गले लगाया था
फिर इंकलाब का नारा देकर
हंसते हंसते फांसी को गले लगाया है
जनमानस को देखकर डरे गोरों ने
सतलज किनारे उन्हें जलाया है
आजादी के इन सेना नायकों का
कर्ज आज भी हम पर उधारा है
देश के इन वीर शहीदों को
इनकी पुण्य तिथि पर नमन हमारा है।
