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Brajendranath Mishra

Romance

4  

Brajendranath Mishra

Romance

हम खोकर भी पा जाते हैं

हम खोकर भी पा जाते हैं

2 mins
330



मलय समीर सुरभित प्रवाहित

लता - द्रुमों में झूमते पुष्पाहार।

धड़कन चल रही सतत गतिमान, 

बाहों में सिमटता जा रहा संसार।


प्राणों को निमंत्रण दे रहे प्राण,

कहाँ से आ गई, यह विकलता।

समीप आ गया तेरे आकर्षण में,

मन किंचित जा रहा पिघलता।


सुरभित समीर के छूने से, गहन - अंध मिट जाते हैं,

मन का बंधन खुल जाता है, हम खोकर भी पा जाते है।


लताएँ लिपटती जब वृक्षों की डालों से

ताल तलैया का भी हो रहा संगम है।

नदियां घहराती, उफनती, जा रही,

सागर से मिलन होना ही लक्ष्य अंतिम है।


तब नाव तट से खोलने से पूर्व ही

अर्थ ढूँढने में क्यों भटक जाता है?

क्यों उत्ताल तरंगों पर खेने से पूर्व,

अविचारित से प्रश्न में उलझ जाता है?


प्रश्नों की उलझन के पार, नए अर्थ मिल जाते हैं।

मन के द्वंद्व मिट जाते हैं, हम खोकर भी पा जाते हैं।


यौवन से जीवन है, किंवा जीवन ही यौवन है,

प्रश्न पर प्रश्नों का लगा प्रश्न - चिन्ह है।

उत्तर ढूढ़ते हुए, बुद्धि, ढूढ़ती समत्व है,

वैसे ही जैसे नहीं हिम से जल भिन्न है।


मधु का ही दीपक है, मधु की ही बाती है,

मधु ही प्रकाशित है, मधु का ही ईंधन है।

मधु - यामिनी में मधु - रस बिखर रहा,

मधु - रस का हो रहा, नित्य नव - सींचन है।


यौवन ही मधु - स्रोत, सिंचन से तन मन प्लावित हो जाता है।

मन का बंधन खुल जाता है, हम खोकर भी पा जाते है। 


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