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Brajendranath Mishra

Abstract

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Brajendranath Mishra

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भीड़ में कितने अकेले हैं

भीड़ में कितने अकेले हैं

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भीड़ में कितने अकेले हैं

इस जहाँ में बहुत कुछ झेले हैं।

फिर भी भीड़ में कितने अकेले हैं।


शाम उतरती है कुछ इसतरह

जैसे गुजरी यादों के रेले हैं।

कई-कई रास्ते ऐसे मिलते गए

जहाँ फैले नागफणी  नुकीले हैं।


हर जगह स्वाद मीठे तो होंगें नहीं

चखता गया जैसे वक्त के करैले हैं।

ऊपर से मीठे दिखने वाले आम भी

अन्दर  घुलते, कितने लगे कसैले है।


झक सफेदी जो है उनके कुरते पर

झाँको, देखो, अंदर से कितने मैले हैं।

विशाल अजगर के फैलने के पहले

मिटा दो उन्हें तभी जब संपोले हैं।


आपके मुस्कराने में भी लगता है

छूटेंगें तीर जो खासे विषैले हैं।

उड़ाते चलो परचम मेरे दोस्तों

'मर्मज्ञ' है जिन्दा तभी तो झमेले हैं।


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