।। हिन्दी दिवस।।
।। हिन्दी दिवस।।
हिन्दी खड़ी हुई रस्ते में,
लेकर अपने तख्ती हाथ,
झांको तुम निज मन देखो,
कब कब तुम थे मेरे साथ ।।
उर्दू को मौसी बनवाया,
चाची है बनी हुई अंग्रेजी,
कब वो था बार आखिरी,
जब थी हिन्दी में पाती भेजी ।।
कब तुमने हिन्दी में अपना,
जन्मदिवस का गीत था गाया,
सोचो कब बच्चे को अपने,
कोई हिन्दी कविता गीत गवाया ।।
स्वभाषा पर अभिमान नहीं,
ना ही है उन्नति का विश्वास,
मुगलों और अंग्रेजों के तुम,
स्वतंत्र होकर भी रहे हो दास ।।
बस मेरी कुछ झूठी प्रशंसा,
इस हिन्दी दिवस पे करते हो,
सच तो ये है महफिल में,
मुझ को कहने से डरते हो ।।
जिस समाज को अपनी भाषा,
और लेखनी का अभिमान नहीं,
वो समाज बड़ा ही है कुंठित,
कुछ निज क्षमता का ज्ञान नहीं ।।
अपनी बोली को तुम बस अब,
एक दिन तक सीमित मत करना,
मौसी चाची के सम्मान निहित,
इस माँ को ना अपमानित करना,
इस माँ को ना अपमानित करना ।।
आज हिन्दी दिवस पर कटाक्ष रूप मेरी ये कविता हमें कहीं न कहीं ये विचार करने को प्रेरित करती है कि क्या हम सच में मातृभाषा के सच्चे पूजक हैं या बस एक रीति निर्वाहन कर रहे हैं ।।