हिम पर्वत से आती हूँ
हिम पर्वत से आती हूँ
मैं नदी हूँ
हिम पर्वत से आती हूं,
झरनों मे गिरती हूं।
समतल पर बहती हूं।
ना कोई मेरा रुप है,ना मेरा कोई रंग।
पारदर्शी हूं, दिखता मेरा हर अंग
जटिल राह में चलना होता है दूभर
फिर भी बहती कभी नीचे कभी ऊपर।
कभी उफनकर तूफान का सकेंत भी देती हूं
कभी कल कल का मधुर संगीत भी देती हूं।
रखती सदा सबका यहाँ मैं मान
मत डालो मुझमें तुम गंदा कुछ भी सामान।
मैं तो हूँ शुद्ध और पवित्र
मत करो मुझे तुम मैली और अपवित्र
मैं नदी हूं जो निरन्तर बहती हूं
सब कुछ चुपचाप ही सहती हूं।
