पीरियड....
पीरियड....
पीरियड पीडा नहीं,ये तो प्रकृति है।
फिर क्यों समझते इसे एक विकृति है।
ये तो यौवन के आने की होती है आहट
क्यों इसके बारे मे सोचकर ही होती
मन में अजीब सी है घबराहट।
हर महीने ये पॉंच दिन मन,
मस्तिष्क और ये शरीर कितना संवेदनशील होता है
फिर भी अपराध बोध,लाचार ,मजबूर महसूस होता है।
क्यों होता है इन दिनों हर घड़ी पक्षपात।
जो झकझोर देता है अस्तित्व देकर अनेकों आघात
ये ना कोई श्राप है और ना ही कोई है पाप,
ये तो हर औरत को वरदान है।
क्यो हर कोई समझकर अभिशाप,
नहीं करता इसका सम्मान है।
ये रक्त ही तो रचता नया जीव है।
इस रक्त से ही तो रखी जाती नव सृष्टि की नींव है
मन मस्तिष्क से हटानी अब ये कुरीति है।
स्वीकार लो इसको, ये केवल प्रकृति है
ना समझो पीरियड को अब विकृति है।