हे आंख
हे आंख


हे आंख फ़िजूल में तू नम होती है
हे आंख फ़िजूल में तू आंसू खोती है
दुनिया मे कोई तेरा अपना नही है,
फिर क्यों फ़िजूल में आंसू ढोती है!
सबको यहां अपनी-अपनी फ़िक्र है,
किसी घट में नही तेरा कोई जिक्र है,
हे आंख फिर क्यों तू ज्योति खोती है
किसी शीशे में तेरी तस्वीर न होती है!
बहुत बसा रखा है,गंदगी को रुह में,
बहुत सजा रखा है,कचरे को रुह में,
हे आंख तू फ़िजूल चीजो को तोड़ दे,
इन फ़िजूल चीजो को बाहर छोड़ दे!
सत्य के गंगाजल से तू साफ होगी
जहां देखेगी वो ख़ुदा की जगह होगी
हे आंख फिऱ क्यों तू दरिया होती है
सत्य साथ ले इससे तू काबा होगी!