गूंज-सुकून
गूंज-सुकून
एक दफा यूँहीं सुकून को तलाशने मैं ठण्ड की उस शब् में,
ठिठुरते कांपते सैर पर निकल पड़ा |
धुंध ने हर गली चौबारे पर कब्ज़ा कर रखा था,
दूर दूर तक सफ़ेद कोहरे की बिछी चादर के अलावा कुछ दिखाई देना मुमकिन नहीं था,
तो कोशिश भी नहीं की और यूँ ही उस सफ़ेद धुएँ को चीरता आगे बढ़ता गया |
न डर न शिकंज न ही रौशनी की चाह, परवाह न ख्याल किसी बात का भी था,
लगा मानो बादलों के बीच घर बना लिया है और बस शाम के वक़्त बरामदे का मुआइना कर रहे हैं |
उस दिन पहली मरतबा यह एहसास हुआ की सुकून का चेहरा कितना खूबसूरत होता है |