गूँज-शब् ए जुनून
गूँज-शब् ए जुनून
क्यों बेशरम हुआ जाता है फिर आज दिल!
जुनूनीयत की हद है,
मुझमें तुम्हे तुममें मुझे,
खो जाने की शब् है|
वस्ल इस कदर रूह को कचोटता-सा,
होंठाें की सूजन सहलाने की शब् है|
टूट के आगोश में खो जाये इस कदर,
एक दुसरे में समा जाने की शब् है|
जिस्म के हर दाग ज़ख़्म को चूम ले वो,
आज हर दर्द को आग से बुझाने की शब् है|
ना करवटों का हिसाब हो ना गिन सके सिलवटे कोई,
उस वस्ल में खुद को जलाने की शब् है|
इश्क़ उन्स मर्म प्यार भूल के सब,
आज तड़प से तड़प को मिलाने की शब् है|
ना चाँद को डूबने की इज़ाज़त है,
ना शफ़क़ को तिलमिलाने की,
आज प्यास से प्यास को बुझाने की शब् है|
हर दायरे हर दीवार गिराके,
बेपनाह जूनून सुलगाने की शब् है|
जब तक ना थक जाये एहसास का हर कतरा,
तब तक उन्हें खुदमें छुपाने की शब् है|
जिस्म की हर परत को उँगलियों से उनकी,
आज फिर से सहलाने की शब् है|
लेके हाथ उनका हर पल हर लम्हा,
आज सारा बिस्तर भिगाने की शब् है|
ब्यान कर सके जिस्म का हर ज़र्रा उस शब्-ए-जूनून को,
उन दांतों के निशाँ से हर हिस्से को सजाने की शब् है|
"रूह पर जमी बेकरारी बेबसी की हर परत को उठा दो,
बस नज़रों भर से ही पूरा जिस्म सेहला दो,
मोहब्बत करने का कुछ नया अंदाज़ बनाते है चलो आज|"