गुरु- ऋण।
गुरु- ऋण।
गुरु को प्रसन्न जो सदा हैं रखते, गुर प्राप्त कर जाएगा।।
शुद्ध गुरु भक्ति जिसमें नहीं होती, चरित्र गठन न हो पाएगा।।
सच्चा गुरु वही कहलाता, शंकाओं को जो दूर है भगाता।
आत्म कल्याण, सद्ज्ञान जो देते, "समर्थ गुरु, का दर्जा कहलाता।।
समुचित ज्ञान गुरु से ही मिलता, गुरु बिन जीवन अंधकारमय बनता।
श्रद्धा, विश्वास को कम न करना, सेवा-भाव उनसे ही मिलता।।
विनय-भाव को तू अपना ले, गुरु सेवा को हृदय में बसा ले।
गुरु-शिष्य संबंध मात-पुत्र जैसा, गुरु की मूरत हृदय से लगा ले।।
स्वाभाविक प्रेम गुरु हैं करते, मलिन हृदय निर्मल हैं करते।
आदर, मान गुरु का जो रखते, सांसारिक सद्गुण उसमें हैं भरते।।
गुरु समान बन्दनीय न जग में,
वेद-पुराण यही हैं बतलाते।
गुरु का दर्जा प्रभु से भी ऊंचा, संत कबीर यही हैं बतलाते।।
गुरु ऋण से बढ़कर कुछ न जगत में, संभव नहीं इसको चुकाना।
" नीरज" ऋणी है गुरु कृपा का, नामुमकिन है इसको भुलाना।।
