गुमनाम मुसाफिर
गुमनाम मुसाफिर
यूँ शफ़क-ए-अश्फ़ाक में खो जाता है
अल्फ़ाज़-ए-अल्फाजों में खो जाता है
रात का सोया वो गुमनाम मुसाफिर
अहज़ान ओस बनकर खो जाता है
गिरा है गड्ढे में डरता था मन में तन
जिंदा तू अगर जादूगर खो जाता है
अंधश्रद्धा में अंधेरा खोजते इन्सान
रात ना हो उजाला भी खो जाता है
खुशी जाहिर नहीं गम ना है किरायेदारी
ज्यों समंदर रेत पर कैसे आब खो जाता है ।।
