ग़रूर चराग़ों का
ग़रूर चराग़ों का
चंद रुपयों ने बस औक़ात बदल दी उनकी।
चंद सिक्कों के बराबर नहीं थी हस्ती जिनकी।
मशवरा देने लगे वो, ज़िन्दगी कैसेे जियें हम,
डूबने जा रही थी साहिल पे कश्ती जिनकी।
जिनके हाथों ने खड़ी कर दीं इमारतें कितनी,
किसको फ़ुरसत है कि देखे उजड़ी बस्ती उनकी।
क्यूँ उन्हें ख़ाब दिखलाते हो हसीन जन्नत का,
एक रोटी के लिए जान तरसती जिनकी।
जिन चराग़ों को था ग़रूर अपनी लौ पर,
हल्के-से झोंके ने मिटा दी हस्ती उनकी।
ग़रूर = घमंड
साहिल = किनारा
चराग़ = दीपक
