सब्र
सब्र
खुद के बेहद थी करीब,
अब बिछड़ने सी लगी,
नसीब से हारी,
उम्दा किरदारों में बेकिरदार सी हो गई,
अतीत में कैद कहानियों में मैं अपना हिस्सा तलाशती हूं,
आने वाले कल के नाम कई नई कहानियां मैं रोज लिखती मिटाती हूं,
रैना ये रूठी नींद से,
शाम भी गुज़र जाती है आंखे मूंद के,
बंधन या ताना बाना मैं किसमें उलझी थी,
दो पल के खेल में मैं महज़ कठपुतली थी,
एक एक लम्हा मोती सा था पिरोया,
सूने से आशियाने को गीतों से था सजाया,
एक सफ़र में थी मैं बेहोश बस चलती ही गई,
खुद को तिनका तिनका रोज़ बिखेरती गई,
हर रोज़ एक नया सवाल मेरी डगर में है,
इन हालातों से शायद वो बेखबर है,
उन रूबाइयों को बार बार पढ़ा करती हूं,
शायद किसी पन्ने पर अपना जिक्र ढूंढती हूं,
पतंगे सा बेपरवाह हर एहसास था,
हर एहसास सुलग कर राख की शक्ल में था,
मैं मेरा मुझ तक का हाल आखिर क्या था,
खाली कर हमको वक्त सब ले जा चुका था,
मेरी हसरत कहीं गुमशुदा बेनाम ना हो जाए,
रोका है जिसने उड़ान से काश वो हर बेड़ी टूट जाए।