सुदृढ़ समाज।
सुदृढ़ समाज।
सुदृढ़ समाज न बन सकता है भौतिकवादी नारों से,
इससे जोड़ कर रखना होगा, हमें आंतरिक तारों से।
मानव का दर्पण समाज है, इसे स्वच्छ रखना होगा,
इसके खातिर आत्म भाव की, धारा में बहना होगा।
जैसे होंगे भाव हमारे, यह समाज वैसा होगा,
मानसरोवर की यादों में, जीव हंस जैसा होगा।
यद्यपि हम समाज के प्राणी, जीवन में बहुत भटकते हैं,
संतो के चरणों में जाकर, तब अध्यात्म समझते हैं।
नैतिक भाव से समाज का, भेदभाव धुल जाता है,
आत्म भाव के पावन रस में, प्रेम भाव घुल जाता है।
आदर्शों से हम समाज को, मर्यादित कर देते हैं,
दिशा मोड़कर प्रेयश की, फिर श्रेयस को भर देते हैं।