" परिश्रमी जिगर"
" परिश्रमी जिगर"
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मेहनत करो,आप तो बस जमकर
मंजिल खुद आयेगी,पास चलकर
सागर में कूद जाओ,लहर बनकर
ढूंढ निकालोगे जी कई,मोती सुंदर
वो मनुष्य ही चलता है,सीना तानकर
जो स्वाभिमान चराग जलाता है,भीतर
वो मनुष्य ही पहुंचता है,मंजिल पर
जो खुद्दार है,चलता स्वयं के पैरों पर
वही पक्षी छूते है,आकाश को उड़कर
जिनके हौंसले होते है,बड़े ही शुभंकर
उनसे चल तू साखी बहुत संभलकर
जिनके भीतर बसा हुआ है,तम घर
जो कामचोर,आलसी लोग है,भयंकर
वो पथभ्रष्ट हो,दूजो को करते दर-बदर
जो सच्चा है,सत्य ही बसा सांस भीतर
वो अमृत बना सकता है,झूठ का जहर
वो मनुष्य तो झुका सकता है,अम्बर
जो मनुष्य परिश्रम करता है,निरन्तर
वो मनुष्य मोम बना सकता है,पत्थर
जो भीतर रखता है,परिश्रमी जिगर
दिल से विजय
विजय कुमार पाराशर-"साखी"