मेरी कविता
मेरी कविता
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मेरी कविता कोमल- कठोर हो जाती
समय के अनुसार नहीं चलती है।
मेरी कविता किसी का मन हरषाती तो
किसी के सीने में चुभ जाती है।
मेरी कविता गांव की पगडंडी पर मिल जाती
कुछ पागल, कुछ भोली बनकर बतियाती है।
मेरी कविता मंद -मंद मुस्काती
प्रेम सुधा रस बरसाती है।
मेरी कविता जन-जन की पीड़ा हरती
शोषण, अत्याचार, भेदभाव से लड़ जाती है।
मेरी कविता फूल -कांटे बन जाती
जहां जिसकी जरूरत वैसी ही हो जाती है।