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Vaibhav Dubey

Drama

4  

Vaibhav Dubey

Drama

मैं मजबूर हूँ

मैं मजबूर हूँ

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मैं मजदूर हूँ या मजबूर

घृणित दृष्टि घूर रही

जैसे अपराध किया हो

संसार में आकर।


मगर जब मध्यरात्रि में

नींद को तिलांजलि देकर

यात्रियों को गंतव्य तक

पहुँचाता हूँ तब जरूरत

मंदों को एहसास होता है

मेरी अहमियत का।


मकानों को महल बनाने

में मेरे हाथों की चमड़िया

उधड़ गईं मगर मेरी 

झोपडी आज भी बारिश

में बर्तनों में जल भरती है।


जब बनाता हूँ व्यंजन

आलीशान रसोई में

तब विचार यही आता है

क्या बच्चों ने कल रात की

रखी सूखी रोटियों को चीनी 

घोलकर खा तो लिया होगा न?


भले ही कार्य के बदले

मेहनताना मिल जाता है

मगर कहीं न कहीं हम भी

हिस्सा है महलों का।

कोई तो गले से लगाकर 

कहे कि आओ साथ बैठें।


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