ग़ज़ल
ग़ज़ल
उड़ते बादल को सरहद पर रोक सको तो रोक लो
मिलने आऊंगा उससे घर रोक सको तो रोक लो
प्यार नहीं इक तरफ़ा मेरा वो भी मुझपे मरती है
राज़ी हैं दोनों किसका डर रोक सको तो रोक लो
इक चिड़िया ने जिनकी ख़ातिर अपने पर झुलसायें हैं
उन बच्चों के निकल रहे पर रोक सको तो रोक लो
जिनको सर पर बिठलाया था हाथ में उनके पत्थर हैं
फोड़ रहे हैं आज वही सर रोक सको तो रोक लो
आज सियासत का डेरा ही लगता सारा चिड़ियाघर
सांप,लोमड़ी लड़ते अजगर रोक सको तो रोक लो
भले कोई नादानी हो पर माफ़ शेर नहीं करता है
लेकिन गीदड़ कहता पीकर रोक सको तो रोक लो
देखके मेरे शहर का मंजर वैभव दिल घबराता है
सबके हाथों में है पत्थर रोक सको तो रोक लो।