गरीबी की चिलचिलाती धूप
गरीबी की चिलचिलाती धूप
पेट पर बाँध कर कपड़ा, हर सुबह घर से निकलता है
बगल में तक़दीर दबाकर, हर क़दम वह फिसलता है
मुफलिसी के आँगन में, क़िस्मत भी आने से डरती है
भूखे पेट लाचार खुशियाँ, तिल-तिल करके मरती है
चेहरे पर मायूसी की लकीरें, बदन से पसीना बहता है
कर्मपथ पर चलकर भी, कर्मयोगी हर दर्द सहता है
चिलचिलाती धूप में भी, मुस्कुराकर पत्थर तोड़ता है
भूख और ग़रीबी की, टूटी हुई कड़ियों को जोड़ता है
भूख और लाचारी की जंग, इसकी ज़िन्दगी का हिस्सा है
इसके घर भी चूल्हा जलेगा, हर चुनाव का किस्सा है
अगर आज फिर खाली हाथ लौटा, बच्चे भूखे सो जायेंगे
सपनों में रूखा-सूखा खाकर, फिर गहरी नींद सो जाएंगे
मुकद्दर ने क्या खेल खेला, आज खाली हाथ घर जाएगा
भूख से चिल्लाते बच्चों को, आज क्या मूंह दिखायेगा
राह चलते-चलते उसने, पाया रोटी का सूखा टुकड़ा
घर पर भूख से तड़पते, देखा बच्चे का उदास मुखड़ा
भूख और ग़रीबी ने इंसान से, कितने पाप करवाए हैं
किसीसे बिकवाया जिस्म, किसीके घर बिकवाये हैं
महलों में रहने वालों को, इनसे कोई सरोकार नहीं
मगर बात ये सच है, बिन इनके कोई कारोबार नहीं
इस ख़ामोश चेहरे पर, मजबूरियों के पैबंद जड़े हैं
कभी इसकी बस्ती थी, आज वहाँ ऊंचे महल खड़े हैं
होता है जब भी हताश, हाथों की लकीर देखता है
फटी जेब से निकालकर, बच्चे की तस्वीर देखता है।
