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ग्लेशियर।

ग्लेशियर।

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एक कहानी सुनाती हूँ आज

बर्फ़ से पानी 

और पानी से बर्फ़ की

एक सुदूर पर्वत के चोटी पर

जब ग्लेशियर पिघलता है बूंद-बूंद तब जल बनता है निर्मल,पावन

और ढलान की तरफ़ 

बहते-बहते वो 

झरना बन उतरता है 

पहाड़ के चट्टानी छाती से

पूरे वेग के साथ

उछल कर 

ज़िद्दी बच्चे सा मचलकर धरती की गोद में आता है

और तब शांत हो धीमी गति से जल

नदी बन एक सजीली दुल्हन सी बढ़ती है

आगे कलकल करती हुई

इठलाती नवयौवना की तरह

सागर की ओर बड़ती है नदी

कभी रुकती 

कभी सूखती 

कभी बाढ़ बन डुबोती 

लेकिन थमती नहीं है नदी

जैसे हो मन 

जिसकी गति कोई नहीं रोक सकता

बस एक फ़र्क है 

नदी का जल वाष्प बन उड़ जाता 

बारिश बन बरस कर फिर जल बनता है

लेकिन मन की नदी एहसासों में जम जाये 

तो ग्लेशियर कभी नहीं पिघलता 

कोई झरना नहीं झरता

कोई नदी नहीं बहती

बस एक लद्दाख सा सुनापन लिये

बर्फीला शहर नमूदार होता है

सफेद और दर्द 

जमा जमा सा ग्लेशियर।


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