घरेलू औरतें (तीन)
घरेलू औरतें (तीन)
घरेलू औरतें
जब ख़ामोश होती हैं
मन ही मन
उधेड़बुन में फंसी रहती हैं
जो गिरहें खुल गई हैं रिश्तों की
उन्हे बांध धागों से पिरो रही होती हैं।
घरेलू औरतें दबा लेती हैं
अथाह वेदना अपने दिल में
रोक लेती हैं आंसुओं को आंखों में
छुपा लेती हैं सिसकियां
और चेहरे की चोट को
अपने दिल के कब्र में।
घरेलू औरतें
अक्सर देखती हैं सपने
खुली आंखों से
अपने खुद के लिए नहीं
उनके लिए
जो पलट कर भी नहीं पूछते उसे
उसके बुरे हाल में भी।
घरेलू औरतें
खुश दिखती हैं सदा
सामाजिक पिंजड़े में
जहां बेशक घुटन है
उत्पीड़न और शोषण भी
पर वो उफ्फ नहीं करती
क्यों कि उसे सदा मुस्कराना होता होता है
अपनों के लिए।
घरेलू औरतें
मुंह सी लेती हैं दर्द में
इच्छाओं को दबा लेती हैं अपनी
ये मान कर
कि यही नियति है उसकी
जहां उसे ऐसे ही जीना है
घुट घुट कर
अपना मुकद्दर समझकर।