मोल सुकून का
मोल सुकून का
ख्वाहिशों के मेले लगे थे रौनकें बड़ी रंगीन थी
सौदागर और खरीददारों की चहल पहल में
मंजर बड़े हसीन थे।
किसी को महलों की ख्वाहिश
कोई बी एम डब्ल्यू में घूमने को बेकरार
कोई रोजमर्रा जरूरत की
आपाधापी में मशक्कत करता हुआ
कोई आराम से सिगरेट, शराब में
धुएं उड़ाता, फेफड़े जलाते हुए।
भीड़ देखने लायक थी इन दुकानों पर
थोड़ा आगे बढ़ी तो, देखा
सुकून तन्हाई में अकेला बैठा था
मुझे देख बड़े तंज से मुस्कुराने लगा।
मैंने उसकी कीमत पूछी,
बोला कलयुग में मेरा मोल लगाना
तुम इंसानो के वश में नहीं,
और हँसता हुआ अदृश्य हो गया
मेरी आंखों में उन रँग बिरंगी
चाईनीज झालर की बल्बो का
चौंधियापन छोड़।
