कविता : वो जश्न कोई मना न सके
कविता : वो जश्न कोई मना न सके
दोस्ती वो निभा न सके
आग दिल की बुझा न सके
मेरे जज्बातों से खेलकर भी
वो जश्न कोई मना न सके
कभी खामोश रहता हूँ
कभी मैं खुल कर मिलता हूँ
जमाना जो भी अब समझे
ज़माने की परवाह
अब मैं न करता हूँ
वो पल कैसे भूल सकता हूँ
बुझाई थी नयनों की प्यास जब तुमने
वो हर जगह याद आती है
जहाँ बैठकर बात की थी तुमने
उन्ही बातों ने जगाया
ये दोस्ती का भरम
जो इश्क में डूबा
उसी से पूँछ लेना तुम
बड़ा ही मुश्किल होता है
चाहत का समझना
बड़ा ही मुश्किल होता है
इश्क ए आग में दिलों का जलना
जख्म देकर भी वो
मेरे आंसुओं को मिटा न सके
मेरे जज्बातों से खेलकर भी
वो जश्न कोई मना न सके
दोस्ती वो निभा न सके
आग दिल की बुझा न सके
मेरे जज्बातों से खेलकर भी
वो जश्न कोई मना न सके
अब है कभी मसरूफियत
तो हैं कभी रुसवाइयां
तन्हाई में ही गुजरती हैं
अब वक्त की परछाइयां
न इल्जाम गैरों को
अब उल्फत में दे देना
तुम्ही ने सिखाया
अब हमें धोखा देना
गीत समझ कर जिनको
आज भरी महफिल में सुनता हूँ
उन्ही नगमों को,
तन्हाई का साथी हम बना न सके
दोस्ती वो निभा न सके
आग दिल की बुझा न सके
मेरे जज्बातों से खेलकर भी
वो जश्न कोई मना न सके।
