गांव तू शहर छोड़ जा
गांव तू शहर छोड़ जा
कलकल करता पानी
गांवों की है जवानी
माटी की खुश्बू भीनी
लगती कितनी सुहानी
छोटी छोटी पहाड़ियां
टेडी मेड़ी पगडंडियाँ
बाग बगीचे खेतियाँ
मीठी मीठी लोरियां
मिट्टी का वह आंगन
भीनी सुगंध खोये मन
हर धड़कन में अपनापन
हर छोर पर दिखे अल्हड़पन
भोर भये गया दोहती
सारे घर को दूध पिलाती
मक्खन कटोरी, हरी तरकारी
चौक में जलती अंगीठी
आंगन का उजाला
पलंग बिछा निवाड़ वाला
बुजर्गों का वह हुक्का
नही हुड हुड करता अकेला
खनकती चूड़ियां ,मटके का मंथन
श्वेत, शुद्ध लुभाता मक्खन
कुँए की मुँडेर पर भोलापन
संस्कृति दर्शाती सर की ओढन
काश! गाँव गाँव में रहता
शहर न बसने आता
इतिहास अलग होता
खुशहाल आज वह होता
चकाचौंध शहर की
बन गयी उसकी बेबसी
पथरा गई आंख की पुतली
गायब हुई नींद रात की
दो जून रोटी बन गई किस्सा
लहु लुहान खून पसीना
कित जाए नही सोच पाता
हर पल रहता घबराया सा
ए गांव तू शहर छोड़ जा
कदमों को वापिस मोड़ जा
चकाचौंध की लालस मरोड़ जा
मिट्टी से खुद को जोड़ जा
खेत खलियान तेरा कर्म
अन्न उगाना तेरा धर्म
हल उठा न कर शर्म
तू मोहताज नही, तोड़ दे भ्रम
देख उजाला लौट आएगा
खास होगा तेरा हर सवेरा
नही मिलेगा कोई बिलखता
जन जन पर तू राज करेगा
ए किसान तू शहर छोड़ जा
ए किसान तू शहर छोड़ जा......
