घर का दीपक निगाहें बदलता रहा
घर का दीपक निगाहें बदलता रहा
रात तपती रही दिन पिघलता रहा ।
सिलसिला बस यहीं रोज चलता रहा ।।
हाथ में मोम की बातियों को लिए,
रौशनी के लिए खूब भटका किये ।
हर कदम ये सफर दिल को' खलता रहा...
सिलसिला..............।।
बूढ़े' माँ बाप आशा के दीपक तले,
लकड़ियों के सहारे टहलते रहे ।
घर का दीपक निगाहें बदलता रहा.....
सिलसिला .............।।
कल सरे राह सपनों को कुचला गया,
पास लाकर भरोसे को मारा गया।
आदमी में भला कौन पलता रहा...
सिलसिला.........।।
राह में एक भूखा भिखारी मिला ,
पा के' रोटी किसी से चहकने लगा ।
इस तरह पेड़ नेकी का' फलता रहा.....
सिलसिला...........।।
बीज नफरत के बोये गये टूटकर,
सैकड़ों रास्ते मिल गये बेखबर ।
प्यार का एक सौदा ही' टलता रहा.......
सिलसिला........।।
देखता है अगर मौन बैठा है क्यों,
वो विधाता भला आज ऐंठा है क्यों ।
मूँग इंसान कुदरत पे दलता रहा....
सिलसिला.......।।
चल जला रौशनी नेकियों की निकल ,
खुद के झूठे भरम को भुला और चल ।
खाई ठोकर मगर तू सम्हलता रहा....
सिलसिला..........।।
