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गांधारी

गांधारी

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यह कैसा धर्म था,

जिसे निभाने हेतु,

तुमने कई धर्मों का,

किया अवज्ञा....

अच्छा होता गर तुम,

आँखों पर पट्टी ना बांध

अपने वर की आँख बनती।

उसे अच्छे-बुरे का,

संज्ञान देती रहती,

पर गांधारी तुम ने,

अपने नेत्रों पर पट्टी बांध,

अपने-आप को विमुख किया,

कई कर्तव्यों से।

तुम्हारे इस कृत्य से,

कितना कुछ सहना पड़ा था,

तुम्हारे राज्य को,

तुम्हें याद तो है ना,

कैसे तुम्हारे रहते,

तुम्हारे पुत्रों ने,

किया था अपने ही घर की,

स्त्री का चीर-हरण।

अफसोस तो हुआ ही होगा,

तब अपने संकल्प पर,

बेशक आसान ना था,

अंधियारे को जीवन से जोड़ना,

हाँ बहुत सी भारतीय नार,

तुम्हें आदर्श मानती,

कुछ दोषी....

गांधारी तुम जानी जाती रहोगी,

युगों-युगों तक पतिव्रता स्त्री के,

रूप में..

पर यह कैसा संकल्प था,

यह कैसा धर्म था?

जिसे निभाने हेतु,

करना पड़ा था,

कई धर्मों को दरकिनार....

बहुत कुछ अनसुना,

अनकहा समय के,

गर्भ में अब तक सुरक्षित है।

गांधारी कैसे मिटा पाओगी,

अपने ऊपर लगे आक्षेपों को,

इतिहास की खिड़की पर,

एक अंतहीन इंतजार में,

गांधारी अब तक खड़ी है

गांधारी की अनकही कहानी में,

बहुत कुछ शेष बचा है,

जिसे कोई नही जानता..

शायद गांधारी स्वयं भी नहीं।

मेरे शब्दों से गर ,

कोई चोट लगी हो,

तुम्हारे अस्तित्व को,

तो क्षमा करना देवी,

मेरी भूलों को माफ करना,

गांधारी।



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