बसंत
बसंत
बसन्त जब भी आता,
मेरी स्मृतियों की,
सूखी टहनियों पर,
मुरझाए पुष्प पुनः,
खिल उठते
आज फिर मेरी,
स्मृतियों से बाहर
निकल मेरा गाँव,
मुझ से बातें करता
मेरा छोटा सा गांव,
जलालपुर
जहाँ आबादी कम व,
खेत-खलिहान ज्यादा थे,
उस गाँव के,
एक बहुत बड़े भाग में,
बाँसों का झुरमुट था
जिसमें रहते थे,
भूत-प्रेत, तंत्र-मंत्र
हमारे डराने का सारा,
प्रबंधन था वहाँ
और हाँ !
एक बरहम बाबा भी थे,
जो पीपल व बरगद के,
नीचे थे रहते
जो आज भी,
मेरी मन्नतों में,
शामिल रहते
यह बसन्त जब-जब आता,
मेरी स्मृतियों का गाँव
जीवित हो उठता,
पीले सरसों की छटा से,
पूरा गाँव महकने लगता
कोयले गाने लगती
किसानों के चेहरे चमक उठते
आज मैं कह सकती हूँ,
बसन्त को मैंने महसूस किया है,
अच्छा ही था कि तब,
हमारे पास स्मार्टफोन नहीं था,
वर्ना हम भी फोन पर ही,
बसन्त उत्सव मनाते
आज फिर बसन्त के आगमन से,
मैं अतीत खोने लगी,
अपने सपनों के गाँव
जलालपुर में
जहाँ बसन्त घोलता था,
जीवन में मीश्री।