मजदूर
मजदूर
आज घर से निकलते हुए,
मुनियां की फटी सलवार,
अरगनी से लटकती बोली,
बाबा दो मीटर सूती कपड़ा लाना...
छोटे से बटुआ से,
अपनी जमा-पूँजी निकाल,
हथेली पर रखती,
मुनियां की अम्मा बोली,
लौटते समय आज,
आटा कुछ ज्यादा लाना,
बहुत दिन हुआ,
घर के चूल्हे से,
पेट की आग नही बुझी,
अपने कार्यों में तल्लीन,
मुँह में तम्बाखू दबाये,
पैरों की बिवाई को
अनदेखा करता,
अपने सामर्थ्य से अधिक,
भार अपने कंधे पर लिए,
बनाता रहा ताजमहल......
उपहार पाने की लालसा से,
अपने कार्य को तीव्र करता,
संगमरमर के पत्थरों को,
तराशता रहा....
पता नही सत्य,
या असत्य है कि,
ताजमहल बनाने वाले,
विश्वकर्मा के हाथों को,
काट दिया गया....
तभी से इस वर्ग विशेष ने,
अपने आँखों को नही दिया,
सपना देखने का अधिकार.....
रेत-सीमेंट से खुरदरे,
मजबूत हाथ पुनः उग आए,
और फिर से बनाने लगा,
वह किसी और के,
सपनों का एक और ताजमहल....
उसे खरीदना जो हैं,
मुनियां का सलवार,
परिवार की रोटी।