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SIJI GOPAL

Abstract Tragedy

5.0  

SIJI GOPAL

Abstract Tragedy

मैं पराई ,और तु अपना बनता गया।

मैं पराई ,और तु अपना बनता गया।

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उस रोटी के दो सिरे थे हम,

एक ही परात में गुंथे गए हम।

एक ही माँ की कोख से थे हम,

फिर क्यों, मेरे हिस्से ही सारे गम।


मैं बेस्वाद कहलाकर फेंकी गई,

तु भगवान की देन कहलाता रहा।

मैं तवे में काली सी, जलती रही,

तु आंच से दूर, प्यार में पलता रहा।


जाने क्यों मुझे हरपल सेंका गया,

तु आग से हमेशा बचता गया।

जाने क्यों मुझे चूल्हे में झोंका गया,

तु घी की परत में महकता गया।


मैं चारदिवारी में बंद, रोशनी से दूर,

तु आज़ाद त्यौहारों में चमकता गया।

मैं बासी, सूखी, रसोई से चिपकी,

तु चाँदी के थाली में परोसा गया।


मैं छाती का बोझ कहलाती रही,

और तु आंखों का तारा बनता गया।

भाई बहन के रिश्ते से पहले ही,

मैं पराई ,और तु अपना बनता गया।


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