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SIJI GOPAL

Abstract

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SIJI GOPAL

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जिंदगी अब इतवार सी हो गई

जिंदगी अब इतवार सी हो गई

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ये जिंदगी अब इतवार सी हो गई,

फुर्सत के लम्हों की बहार हो गई।

बेचैन धड़कनों का उपचार हो गई,

आराम भरे पलों से गुलज़ार हो गई।


अपने घोंसले में लौटा परिवार हो गई,

आलस्य भरे सुबह का चित्रहार हो गई।

डायरी में दबे अरमानों का इज़हार हो गई,

बीते हुई बातों को याद करने का कारोबार हो गई।


ख्यालों में बंद, रिश्तों के बक्से का उधार हो गई,

जलती हुई खबरों का दहकता अखबार हो गई।

अपनी ताकत के अंहकार से खुद ही बीमार हो गई,

दोपहर की धूप की बेहिसाब गर्मी का हिस्सेदार हो गई।


बाहरी दुनिया से दूर, तनहाई की लम्बी दीवार हो गई,

अपनी प्रकृति पर हुए अत्याचारों का कसूरवार हो गई।

आने वाले उस सोमवार का बेसब्र इन्तज़ार हो गई,

ये जिंदगी, कभी न खत्म होने वाली एक रविवार हो गई।


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